सोख लेता अतिरिक्त पानी
गढ़ने को चाय का स्वाद
सोंधी फुहार लिए
होंठों पर झूमता
कुम्हार की चाक बैठ
ज़िन्दगी -सा घूमता
हर थाप पर संवारता
अपना स्वरुप
पंक्तियों में सजा खूब , गंठियाता धूप
अग्निशिखा में बन कुंदन रूप
आओ ! किसी दिन ढाबे पर बैठ
दूर तक उड़ेली हरीतिमा को
आँखों से पियें
बादलों की रुई भरकर हाँथों में ,
खेत निहारते माटी के लाल – सा
नंगे पाँवों धरती को छुएं
आओ कभी कुल्हड़ में चाय पियें !
कुम्हार के श्रम को चूमते हुए
माटी की पावन सुगंध, जियें |